चौपाई
 इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा।। 
 निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा।।
 सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना।। 
 अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा।।
 कहहु पाख महुँ आव न जोई। मोरें कर ता कर बध होई।। 
 तब हनुमंत बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता।।
 भय अरु प्रीति नीति देखाई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई।। 
 एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए।।
दोहा/सोरठा