4.28

चौपाई
अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा।।
हम द्वौ बंधु प्रथम तरुनाई । गगन गए रबि निकट उडाई।।
तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मै अभिमानी रबि निअरावा ।।
जरे पंख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ।।
मुनि एक नाम चंद्रमा ओही। लागी दया देखी करि मोही।।
बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा । देहि जनित अभिमानी छड़ावा ।।
त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही।।
तासु खोज पठइहि प्रभू दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता।।
जमिहहिं पंख करसि जनि चिंता । तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता।।
मुनि कइ गिरा सत्य भइ आजू । सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू।।
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका । तहँ रह रावन सहज असंका ।।
तहँ असोक उपबन जहँ रहई ।। सीता बैठि सोच रत अहई।।

दोहा/सोरठा
मैं देखउँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार।।
बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार।।28।।

Pages