चौपाई
 प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी।। 
 सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन।।
 नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते।। 
 हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई।।
 जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा।। 
 देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई।।
 मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु।। 
 दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसकाई।।
 हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं।। 
 रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं।।
 जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक।। 
 जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू।।
 रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई।। 
 दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ।।
छंद
उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा।  
   सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा।।
  प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।  
   भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा।।
दोहा/सोरठा
सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।  
     लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति।।19(क)।।
     तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर। 
     तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर।।19(ख)।।
