चौपाई
 कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला।। 
 जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा।।
 चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती।। 
 नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना।।
 सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा।। 
 तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी।।
 जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा।। 
 एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा।।
दोहा/सोरठा
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। 
 मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम।।8।।
