चौपाई
 नाइ चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी।। 
 अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटइ राम करहु जौं दाया।।
 बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावँर पसु कपि अति कामी।। 
 नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा।।
 लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया।। 
 यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई।।
 तब रघुपति बोले मुसकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई।। 
 अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई।।
दोहा/सोरठा
 एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ। 
 नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ।।21।।
