चौपाई
 कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा।। 
 बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कोउ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिं।।
 लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलइ न जल घन गहन भुलाने।। 
 मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना।।
 चढ़ि गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा।। 
 चक्रबाक बक हंस उड़ाहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीं।।
 गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा।। 
 आगें कै हनुमंतहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा।।
दोहा/सोरठा
दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कंज। 
 मंदिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुंज।।24।।
