चौपाई
 ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा।। 
 तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ।।
 जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।। 
 तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा।।
 कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए।। 
 दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।
 कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।। 
 देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका।।
दोहा/सोरठा
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद। 
 सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद।।20।।
