चौपाई
 जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई।। 
 समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।
 खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा।। 
 सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी।।
 जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनयँ तुम्हारे।। 
 मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा।।
 बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन।। 
 देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।
 जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई।। 
 तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै।।
दोहा/सोरठा
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि। 
 गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।22।।
