चौपाई
 श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी।। 
 सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा।।
 जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।। 
 कंपहिं लोकप जाकी त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा।।
 अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई।। 
 मंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता।।
 बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई।। 
 बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू।।
 जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माही।।
दोहा/सोरठा
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस। 
 राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।37।।
