चौपाई
 मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।। 
 नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।
 जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा।। 
 मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।
 पुनि संभारि उठि सो लंका। जोरि पानि कर बिनय संसका।। 
 जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।
 बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।। 
 तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता।।
दोहा/सोरठा
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। 
 तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।।
