चौपाई
 सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।। 
 तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।
 तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीति न पद सरोज मन माहीं।। 
 अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।
 जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।। 
 सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।
 कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।। 
 प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।
दोहा/सोरठा
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। 
 कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।।
