चौपाई
 पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने।। 
 तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा में चरित्र कलिजुग कर।।
 आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं।। 
 कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका।।
 जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।। 
 नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी।।
 ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं।। 
 बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।
 सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना।। 
 सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा।।
दोहा/सोरठा
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।  
    करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग।।100(क)।।
    श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक। 
    तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।।100(ख)।।
