छंद
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती।। 
    तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही।।
 कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती।। 
    सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं।।
    ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें।। 
    नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं।।
  धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।। 
    नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो।।
    कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी।। 
    कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।।
दोहा/सोरठा
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।  
    मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड।।101(क)।।
    तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान। 
    देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान।।101(ख)।।
