चौपाई
 गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा।। 
 धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी।।
 सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई।। 
 सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई।।
 जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना।। 
 सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा।।
 एहि तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई।। 
 जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई।।
दोहा/सोरठा
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।  
    अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित।।95(क)।।
    पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।  
    कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम।।95(ख)।।
