चौपाई
 तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।। 
 माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।
 रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं।। 
 तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।
 पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई।। 
 आँब छाहँ कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।।
 बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।। 
 राम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।
 सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला।। 
 जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनंद बिसेषा।।
दोहा/सोरठा
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।  
    सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास।।57।।
