चौपाई
 तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा।। 
 सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। परेम सहित मैं कहेउँ भवानी।।
 मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही।। 
 तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा।।
 सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई।। 
 जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना।।
 नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई।। 
 जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा।।
दोहा/सोरठा
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।  
     मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग।।61।।
