चौपाई
 ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा।। 
 हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।।
 ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर।। 
 भ्रम ते चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा।।
 तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ।। 
 जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना।।
 तब मैं भागि चलेउँ उरगामी। राम गहन कहँ भुजा पसारी।। 
 जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा।।
दोहा/सोरठा
ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।  
    जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात।।79(क)।।
    सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि। 
    गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि।।79(ख)।।
