चौपाई
 भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका।। 
 फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ।।
 निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ।। 
 देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई।।
 राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना।। 
 तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना।।
 करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी।। 
 उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा।।
दोहा/सोरठा
देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।  
    बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर।।82(क)।।
    सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम। 
    कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम।।82(ख)।।
