चौपाई
 मंदिर माझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी।। 
 जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा।।
 तदपि साप सठ दैहउँ तोही। नीति बिरोध सोहाइ न मोही।। 
 जौं नहिं दंड करौं खल तोरा। भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा।।
 जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं।। 
 त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा।।
 बैठ रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति ब्यापी।। 
 महा बिटप कोटर महुँ जाई।।रहु अधमाधम अधगति पाई।।
दोहा/सोरठा
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।। 
    कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप।।107(क)।।
    करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि। 
    बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि।।107(ख)।।
