चौपाई
 पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई।। 
 अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन।।
 एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए।। 
 सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर।।
 सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा।। 
 जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा।।
 सीता चरन चौंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा।। 
 चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना।।
दोहा/सोरठा
अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। 
 ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह।।1।।
