चौपाई
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते।।
तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए।
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता।।
पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक।।
धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा।।
बोलि बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी।।
करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती।।
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा।।
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ।।
संग ते जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा।।
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहि बेगि नीति अस सुनी।।
दोहा/सोरठा
रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन।।21(क)।।
सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ।।21(ख)।।