चौपाई
 जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी।। 
 गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा।।
 तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना।। 
 सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी।।
 उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना।। 
 उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें।।
 अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा।। 
 मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही।।
छंद
 निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।  
     श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं।।
 निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।  
     निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी।।
दोहा/सोरठा
मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।  
    फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन।।26।।
