चौपाई
 निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।। 
 सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती।।
 जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा।। 
 श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया।।
 बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना।।  
 दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ।।
 गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला।। 
 मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते।।
छंद
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।  
    अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे।।
  सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।। 
    ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए।।
दोहा/सोरठा
रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग।  
    राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग।।46(क)।।
    दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग। 
    भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग।।46(ख)।।
