चौपाई
 जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी।। 
 निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
 जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।। 
 कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा।।
 देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।। 
 बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।
 आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।। 
 जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।।
 सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।। 
 सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।
 कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा।। 
 दुंदुभी अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए।।
 देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती। बालि बधब इन्ह भइ परतीती।। 
 बार बार नावइ पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा।।
 उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला।। 
 सुख संपति परिवार बड़ाई। सब परिहरि करिहउँ सेवकाई।।
 ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं संत तब पद अवराधक।। 
 सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीं।।
 बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा।। 
 सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई।।
 अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती।। 
 सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी।।
 जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई।। 
 नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत।।
 लै सुग्रीव संग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा।। 
 तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा।।
 सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा।। 
 सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा।।
 कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं संग्रामा।।
दोहा/सोरठा
कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ। 
 जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ।।7।।
