चौपाई
 अस कहि करत दंडवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।। 
 दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।।
 अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी।। 
 कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।
 खल मंडलीं बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती।। 
 मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती।।
 बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।। 
 अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्ह जानि जन दाया।।
दोहा/सोरठा
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम। 
 जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम।।46।।
