चौपाई
 सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।। 
 भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा।।
 कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।। 
 सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।
 अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।। 
 मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही।।
 जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे। 
 जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।
 नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।। 
 करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई।।
 रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।। 
 बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा।।
दोहा/सोरठा
बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति। 
 बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।57।।
