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1.2.287

चौपाई
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी।।
पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।
जिति सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी।।
गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे।।
पितु कह सत्य सनेहँ सुबानी। सीय सकुच महुँ मनहुँ समानी।।
पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख आसिष हित दीन्हि सुहाई।।
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। इहाँ बसब रजनीं भल नाहीं।।
लखि रुख रानि जनायउ राऊ। हृदयँ सराहत सीलु सुभाऊ।।

दोहा/सोरठा

1.2.286

चौपाई
प्रिय परिजनहि मिली बैदेही। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही।।
तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी।।
जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहि सिय देखी आई।।
लीन्हि लाइ उर जनक जानकी। पाहुन पावन पेम प्रान की।।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुँ पयागू।।
सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा।।
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़त लहेउ बाल अवलंबनु।।
मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर सनेह की।।

दोहा/सोरठा

1.2.285

चौपाई
लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनकप्रिया गह पाय पुनीता।।
देबि उचित असि बिनय तुम्हारी। दसरथ घरिनि राम महतारी।।
प्रभु अपने नीचहु आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं।।
सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी।।
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै।।
रामु जाइ बनु करि सुर काजू। अचल अवधपुर करिहहिं राजू।।
अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपनें अपने थल।।
यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुधा मुनि भाषा।।

दोहा/सोरठा

1.2.284

चौपाई
रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भाँति कहब समुझाई।।
रखिअहिं लखनु भरतु गबनहिं बन। जौं यह मत मानै महीप मन।।
तौ भल जतनु करब सुबिचारी। मोरें सौचु भरत कर भारी।।
गूढ़ सनेह भरत मन माही। रहें नीक मोहि लागत नाहीं।।
लखि सुभाउ सुनि सरल सुबानी। सब भइ मगन करुन रस रानी।।
नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहँ सिद्ध जोगी मुनि।।
सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्राँ कहेऊ।।
देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनी उठी सप्रीती।।

दोहा/सोरठा

1.2.283

चौपाई
ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सुतबधू देवसरि बारी।।
राम सपथ मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहउँ सखी सति भाऊ।।
भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई।।
कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे।।
जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा।।
कसें कनकु मनि पारिखि पाएँ। पुरुष परिखिअहिं समयँ सुभाएँ।
अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा।।
सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानी।।

दोहा/सोरठा

1.2.282

चौपाई
सुनि ससोच कह देबि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा।।
जो सृजि पालइ हरइ बहोरी। बाल केलि सम बिधि मति भोरी।।
कौसल्या कह दोसु न काहू। करम बिबस दुख सुख छति लाहू।।
कठिन करम गति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता।।
ईस रजाइ सीस सबही कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें।।
देबि मोह बस सोचिअ बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी।।
भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिअ सखि लखि निज हित हानी।।
सीय मातु कह सत्य सुबानी। सुकृती अवधि अवधपति रानी।।

दोहा/सोरठा

1.2.281

चौपाई
एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं।।
सीय मातु तेहि समय पठाईं। दासीं देखि सुअवसरु आईं।।
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयउ जनकराज रनिवासू।।
कौसल्याँ सादर सनमानी। आसन दिए समय सम आनी।।
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा।।
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन। महि नख लिखन लगीं सब सोचन।।
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती। जनु करुना बहु बेष बिसूरति।।
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी। जो पय फेनु फोर पबि टाँकी।।

दोहा/सोरठा

1.2.280

चौपाई
एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी।।
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं।।
सीता राम संग बनबासू। कोटि अमरपुर सरिस सुपासू।।
परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही।।
दाहिन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसिअ बन तबही।।
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला। राम दरसु मुद मंगल माला।।
अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल।।
सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होहिं न जनिअहिं जाता।।

दोहा/सोरठा

1.2.279

चौपाई
कामद मे गिरि राम प्रसादा। अवलोकत अपहरत बिषादा।।
सर सरिता बन भूमि बिभागा। जनु उमगत आनँद अनुरागा।।
बेलि बिटप सब सफल सफूला। बोलत खग मृग अलि अनुकूला।।
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू। त्रिबिध समीर सुखद सब काहू।।
जाइ न बरनि मनोहरताई। जनु महि करति जनक पहुनाई।।
तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मुनि आयसु पाई।।
देखि देखि तरुबर अनुरागे। जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे।।
दल फल मूल कंद बिधि नाना। पावन सुंदर सुधा समाना।।

दोहा/सोरठा

1.2.278

चौपाई
जे महिसुर दसरथ पुर बासी। जे मिथिलापति नगर निवासी।।
हंस बंस गुर जनक पुरोधा। जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा।।
लगे कहन उपदेस अनेका। सहित धरम नय बिरति बिबेका।।
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं। समुझाई सब सभा सुबानीं।।
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ। नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ।।
मुनि कह उचित कहत रघुराई। गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई।।
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू। इहाँ उचित नहिं असन अनाजू।।
कहा भूप भल सबहि सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना।।

दोहा/सोरठा

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