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1.2.172

चौपाई
अस बिचारि केहि देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिअ रोसू।।
तात बिचारु केहि करहु मन माहीं। सोच जोगु दसरथु नृपु नाहीं।।
सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना।।
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।।
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।।
सोचिअ सूद्रु बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।।
सोचिअ पुनि पति बंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी।।
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुसरई।।

1.2.171

चौपाई
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी।।
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।
बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोलि भरत दोउ भाई।।
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति धरममय बचन उचारे।।
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी। कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी।।
भूप धरमब्रतु सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा।।
कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ।।
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी।।

दोहा/सोरठा

1.2.170

चौपाई
नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमानु बनावा।।
गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानि दरसन अभिलाषी।।
चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए।।
सरजु तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई।।
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही।।
सोधि सुमृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना।।
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा। तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा।।
भए बिसुद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजि गज बाहन नाना।।

दोहा/सोरठा

1.2.169

चौपाई
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे।।
बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी।।
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू। तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू।।
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं।।
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए। थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए।।
करत बिलाप बहुत यहि भाँती। बैठेहिं बीति गइ सब राती।।
बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे।।

1.2.168

चौपाई
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहीं।।
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी।।
लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधनु परदारा।।
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा। जौं जननी यहु संमत मोरा।।
जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमारथ पथ बिमुख अभागे।।
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई।।
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं।।
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यहु जानौं भेऊ।।

दोहा/सोरठा

1.2.167

चौपाई
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई।।
भाँति अनेक भरतु समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं। कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं।।
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी। बोले भरत जोरि जुग पानी।।
जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महिसुर पुर जारें।।
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महीपति माहुर दीन्हें।।
जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं।।
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता। जौं यहु होइ मोर मत माता।।

दोहा/सोरठा

1.2.166

चौपाई
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू।।
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनुरागी।।
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा। रहहिं न जतन किए रघुनाथा।।
तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई।।
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए। गइउँ न संग न प्रान पठाए।।
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागें।।
मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी।।
जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना।।

दोहा/सोरठा

1.2.165

चौपाई
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए। अति हित मनहुँ राम फिरि आए।।
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयँ समाई।।
देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।।
माताँ भरतु गोद बैठारे। आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे।।
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू। कुसमउ समुझि सोक परिहरहू।।
जनि मानहु हियँ हानि गलानी। काल करम गति अघटित जानि।।
काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता।।
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा। अजहुँ को जानइ का तेहि भावा।।

दोहा/सोरठा

1.2.164

चौपाई
भरतहि देखि मातु उठि धाई। मुरुछित अवनि परी झइँ आई।।
देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी।।
मातु तात कहँ देहि देखाई। कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई।।
कैकइ कत जनमी जग माझा। जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा।।
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।।
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहि लागी।।
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतु।।
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी।।

दोहा/सोरठा

1.2.163

चौपाई
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई। जरहिं गात रिस कछु न बसाई।।
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई। बसन बिभूषन बिबिध बनाई।।
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई। बरत अनल घृत आहुति पाई।।
हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा।।
कूबर टूटेउ फूट कपारू। दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू।।
आह दइअ मैं काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा।।
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटन धरि धरि झोंटी।।
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।।

दोहा/सोरठा

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