verse

1.1.186

छंद
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता।।
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई।।
जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा।।
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा।।
जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा।।

1.1.184

चौपाई
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।।
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी।।
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी।।
गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।।
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता।।
धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी।।
निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई।।

1.1.183

चौपाई
इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ।।
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा।।
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी।।
करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया।।
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।।
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई।।
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना।।

1.1.103

चौपाई
तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई।।
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना।।
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए।।
जगत मातु पितु संभु भवानी। तेही सिंगारु न कहउँ बखानी।।
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा।।
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ।।
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुर समर जेहिं मारा।।
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना।।

1.1.102

चौपाई
बहु बिधि संभु सास समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई।।
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही।।
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा।।
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी।।
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं।।
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी।।
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेम कछु जाइ न बरना।।
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी।।

1.1.101

चौपाई
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई।।
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी।।
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हिंयँ हरषे तब सकल सुरेसा।।
बेद मंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं।।
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना।।
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू।।
दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा।।
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना।।

1.1.100

चौपाई
बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे।।
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी।।
सिंघासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा।।
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई।।
बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाई। करि सिंगारु सखीं लै आई।।
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है।।
जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा।।
सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी।।

1.1.99

चौपाई
तब मयना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे।।
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने।।
लगे होन पुर मंगलगाना। सजे सबहि हाटक घट नाना।।
भाँति अनेक भई जेवराना। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा।।
सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी।।
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरंचि देव सब जाती।।
बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा।।
नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी।।

1.1.98

चौपाई
तब नारद सबहि समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा।।
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी।।
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा संभु अरधंग निवासिनि।।
जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि।।
जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुंदर तनु पाई।।
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं।।
एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा।।
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा।।

1.1.97

चौपाई
नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा।।
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लगि तपु कीन्हा।।
साचेहुँ उन्ह के मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया।।
पर घर घालक लाज न भीरा। बाझँ कि जान प्रसव कैं पीरा।।
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी।।
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता।।
करम लिखा जौ बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू।।
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका।।

Pages

Subscribe to RSS - verse