57

2.7.57

चौपाई
তেহিং গিরি রুচির বসই খগ সোঈ৷ তাসু নাস কল্পাংত ন হোঈ৷৷
মাযা কৃত গুন দোষ অনেকা৷ মোহ মনোজ আদি অবিবেকা৷৷
রহে ব্যাপি সমস্ত জগ মাহীং৷ তেহি গিরি নিকট কবহুনহিং জাহীং৷৷
তহবসি হরিহি ভজই জিমি কাগা৷ সো সুনু উমা সহিত অনুরাগা৷৷
পীপর তরু তর ধ্যান সো ধরঈ৷ জাপ জগ্য পাকরি তর করঈ৷৷
আ ছাহকর মানস পূজা৷ তজি হরি ভজনু কাজু নহিং দূজা৷৷
বর তর কহ হরি কথা প্রসংগা৷ আবহিং সুনহিং অনেক বিহংগা৷৷
রাম চরিত বিচীত্র বিধি নানা৷ প্রেম সহিত কর সাদর গানা৷৷
সুনহিং সকল মতি বিমল মরালা৷ বসহিং নিরংতর জে তেহিং তালা৷৷

2.6.57

चौपाई
অস কহি চলা রচিসি মগ মাযা৷ সর মংদির বর বাগ বনাযা৷৷
মারুতসুত দেখা সুভ আশ্রম৷ মুনিহি বূঝি জল পিযৌং জাই শ্রম৷৷
রাচ্ছস কপট বেষ তহসোহা৷ মাযাপতি দূতহি চহ মোহা৷৷
জাই পবনসুত নাযউ মাথা৷ লাগ সো কহৈ রাম গুন গাথা৷৷
হোত মহা রন রাবন রামহিং৷ জিতহহিং রাম ন সংসয যা মহিং৷৷
ইহাভএমৈং দেখেউভাঈ৷ গ্যান দৃষ্টি বল মোহি অধিকাঈ৷৷
মাগা জল তেহিং দীন্হ কমংডল৷ কহ কপি নহিং অঘাউথোরেং জল৷৷
সর মজ্জন করি আতুর আবহু৷ দিচ্ছা দেউগ্যান জেহিং পাবহু৷৷

2.5.57

चौपाई
সুনত সভয মন মুখ মুসুকাঈ৷ কহত দসানন সবহি সুনাঈ৷৷
ভূমি পরা কর গহত অকাসা৷ লঘু তাপস কর বাগ বিলাসা৷৷
কহ সুক নাথ সত্য সব বানী৷ সমুঝহু ছাড়ি প্রকৃতি অভিমানী৷৷
সুনহু বচন মম পরিহরি ক্রোধা৷ নাথ রাম সন তজহু বিরোধা৷৷
অতি কোমল রঘুবীর সুভাঊ৷ জদ্যপি অখিল লোক কর রাঊ৷৷
মিলত কৃপা তুম্হ পর প্রভু করিহী৷ উর অপরাধ ন একউ ধরিহী৷৷
জনকসুতা রঘুনাথহি দীজে৷ এতনা কহা মোর প্রভু কীজে৷
জব তেহিং কহা দেন বৈদেহী৷ চরন প্রহার কীন্হ সঠ তেহী৷৷
নাই চরন সিরু চলা সো তহা কৃপাসিংধু রঘুনাযক জহা৷

2.2.57

चौपाई
দেব পিতর সব তুন্হহি গোসাঈ৷ রাখহুপলক নযন কী নাঈ৷৷
অবধি অংবু প্রিয পরিজন মীনা৷ তুম্হ করুনাকর ধরম ধুরীনা৷৷
অস বিচারি সোই করহু উপাঈ৷ সবহি জিঅত জেহিং ভেংটেহু আঈ৷৷
জাহু সুখেন বনহি বলি জাঊ করি অনাথ জন পরিজন গাঊ৷
সব কর আজু সুকৃত ফল বীতা৷ ভযউ করাল কালু বিপরীতা৷৷
বহুবিধি বিলপি চরন লপটানী৷ পরম অভাগিনি আপুহি জানী৷৷
দারুন দুসহ দাহু উর ব্যাপা৷ বরনি ন জাহিং বিলাপ কলাপা৷৷
রাম উঠাই মাতু উর লাঈ৷ কহি মৃদু বচন বহুরি সমুঝাঈ৷৷

2.1.57

चौपाई
তব সংকর প্রভু পদ সিরু নাবা৷ সুমিরত রামু হৃদযঅস আবা৷৷
এহিং তন সতিহি ভেট মোহি নাহীং৷ সিব সংকল্পু কীন্হ মন মাহীং৷৷
অস বিচারি সংকরু মতিধীরা৷ চলে ভবন সুমিরত রঘুবীরা৷৷
চলত গগন ভৈ গিরা সুহাঈ৷ জয মহেস ভলি ভগতি দৃঢ়াঈ৷৷
অস পন তুম্হ বিনু করই কো আনা৷ রামভগত সমরথ ভগবানা৷৷
সুনি নভগিরা সতী উর সোচা৷ পূছা সিবহি সমেত সকোচা৷৷
কীন্হ কবন পন কহহু কৃপালা৷ সত্যধাম প্রভু দীনদযালা৷৷
জদপি সতীং পূছা বহু ভাী৷ তদপি ন কহেউ ত্রিপুর আরাতী৷৷

1.7.57

चौपाई
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पांत न होई।।
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं।।
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा।।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई।।
आँब छाहँ कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।।
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा।।
राम चरित बिचीत्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना।।
सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला।।

1.6.57

चौपाई
अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया।।
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम।।
राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा।।
जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा।।
होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिं।।
इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई।।
मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल।।
सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु।।

दोहा/सोरठा

1.5.57

चौपाई
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।।
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा।।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही।।
जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे।
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिंधु रघुनायक जहाँ।।

1.2.57

चौपाई
देव पितर सब तुन्हहि गोसाई। राखहुँ पलक नयन की नाई।।
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना।।
अस बिचारि सोइ करहु उपाई। सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई।।
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ। करि अनाथ जन परिजन गाऊँ।।
सब कर आजु सुकृत फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता।।
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहि जानी।।
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाहिं बिलाप कलापा।।
राम उठाइ मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई।।

दोहा/सोरठा

1.1.57

चौपाई
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा।।
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं।।
अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा।।
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई।।
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना।।
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा।।
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला।।
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती।।

दोहा/सोरठा

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