चौपाई
 अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मंदिर बर बाग बनाया।। 
 मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम।।
 राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा।। 
 जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा।।
 होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिं।। 
 इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई।।
 मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल।। 
 सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु।।
दोहा/सोरठा
सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान। 
 मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान।।57।।
