1.1.163

चौपाई
जनि आचरुज करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं।।
तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता।।
तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।।
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा।।
करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका।।
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी।।
सुनि महिप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहत तब लयऊ।।
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही।।

दोहा/सोरठा
सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव।।163।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: