चौपाई
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।।
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।।
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।
जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें।।
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।
देव गिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची।।
देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।
छंद
मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।।
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही।।
दोहा/सोरठा
बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस।।320।।