1.1.324

चौपाई
जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी।।
सुजसु सुकृत सुख सुदंरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई।।
समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाई। सुनत सुआसिनि सादर ल्याई।।
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि संग बनि जनु मयना।।
कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुंगध मंगल जल पूरे।।
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी।।
पढ़हिं बेद मुनि मंगल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी।।
बरु बिलोकि दंपति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे।।

छंद
लागे पखारन पाय पंकज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली।।
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं।।1।।
जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरंदु जिन्ह को संभु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई।।
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहै।।2।।
बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आँनद भरैं।।
सुखमूल दूलहु देखि दंपति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो।।3।।
हिमवंत जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई।।
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरी।
करि होम बिधिवत गाँठि जोरी होन लागी भावँरी।।4।।

दोहा/सोरठा
जय धुनि बंदी बेद धुनि मंगल गान निसान।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान।।324।।

Kaanda: 

Type: 

Language: 

Verse Number: