1.1.62

चौपाई
कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा।। 
दच्छ सकल निज सुता बोलाई। हमरें बयर तुम्हउ बिसराई।।
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना।। 
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी।।
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा।। 
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई।।
भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा।।
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ।।

दोहा/सोरठा
कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि।।62।।

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