1.1.84

चौपाई
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा।।
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही।।
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई।।
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा।।
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा।।
कोपेउ जबहि बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू।।
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना।।
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा।।

छंद
भागेउ बिबेक सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे।।
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा।।

दोहा/सोरठा
जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम।।84।।

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