1.2.18

चौपाई
चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बात सँवारी।।
पठए भरतु भूप ननिअउरें। राम मातु मत जानव रउरें।।
सेवहिं सकल सवति मोहि नीकें। गरबित भरत मातु बल पी कें।।
सालु तुम्हार कौसिलहि माई। कपट चतुर नहिं होइ जनाई।।
राजहि तुम्ह पर प्रेमु बिसेषी। सवति सुभाउ सकइ नहिं देखी।।
रची प्रंपचु भूपहि अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।
यह कुल उचित राम कहुँ टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।।
आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।

दोहा/सोरठा
रचि पचि कोटिक कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु।।
कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।18।।

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