1.2.251

चौपाई
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।।
देब काह हम तुम्हहि गोसाँई। ईधनु पात किरात मिताई।।
यह हमारि अति बड़ि सेवकाई। लेहि न बासन बसन चोराई।।
हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाती।।
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहि पेट अघाहीं।।
सपोनेहुँ धरम बुद्धि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ।।
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे।।
बचन सुनत पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे।।

छंद
लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावहीं।
बोलनि मिलनि सिय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं।।
नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा।
तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा।।

दोहा/सोरठा
बिहरहिं बन चहु ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब।
जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम।।251।।

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