चौपाई
नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई।।
जेहि बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करुना सागर कीजिअ सोई।।
देवँ दीन्ह सबु मोहि अभारु। मोरें नीति न धरम बिचारु।।
कहउँ बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू।।
उतरु देइ सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि लाज लजाई।।
अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेहँ सराहत साधू।।
अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाइँ न पावा।।
प्रभु पद सपथ कहउँ सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ।।
दोहा/सोरठा
प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहि आयसु देब।
सो सिर धरि धरि करिहि सबु मिटिहि अनट अवरेब।।269।।