चौपाई
 जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई। तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई।। 
 थाति राखि न मागिहु काऊ। बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ।।
 झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।। 
 रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई।।
 नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।। 
 सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।
 तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृत सनेह अवधि रघुराई।। 
 बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली। कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली।।
दोहा/सोरठा
भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु। 
 भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु।।28।।
