1.2.318

चौपाई
जहाँ जनक गुर मति भोरी। प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी।।
बरनत रघुबर भरत बियोगू। सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू।।
सो सकोच रसु अकथ सुबानी। समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी।।
भेंटि भरत रघुबर समुझाए। पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए।।
सेवक सचिव भरत रुख पाई। निज निज काज लगे सब जाई।।
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा।।
प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई। चले सीस धरि राम रजाई।।
मुनि तापस बनदेव निहोरी। सब सनमानि बहोरि बहोरी।।

दोहा/सोरठा
लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि।।318।।

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