चौपाई
 चहत न भरत भूपतहि भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें।। 
 सो सबु मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।
 सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।। 
 करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहि तिहुँ पुर राम बड़ाई।।
 तोर कलंकु मोर पछिताऊ। मुएहुँ न मिटहि न जाइहि काऊ।। 
 अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।
 जब लगि जिऔं कहउँ कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।। 
 फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ नहारु लागी।।
दोहा/सोरठा
परेउ राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु। 
 कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुँ मसानु।।36।।
