चौपाई
 लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।। 
 मन महुँ तरक करै कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।।
 राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।। 
 एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।
 बिप्र रुप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।। 
 करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।
 की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।। 
 की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।।
दोहा/सोरठा
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम। 
 सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।6।।
