चौपाई
 अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई।। 
 राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही।।
 निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँती। जुग सम भई सिराति न राती।। 
 करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी।।
 जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू।। 
 सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा।।
 इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा।। 
 सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही। धिग धिग अधम मंदमति तोही।।
 तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भौरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा।। 
 सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा।।
 जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी।।
छंद
धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।  
    अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा।।
 बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।  
    चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो।।
दोहा/सोरठा
देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।  
     अंतरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार।।100।।
