छंद
जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड।। 
    बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच।।1।।
    जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल।। 
    करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान।।2।।
    धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर।। 
    मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान।।3।।
    जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि।। 
    भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु।।4।।
    जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस।। 
    लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत।।5।।
    हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ।। 
    एहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि।।6।।
    प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान।। 
    तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ।।7।।
    मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ।। 
    दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज।।8।।
तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।  
    जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही।।
  प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।  
    रघुबीर एकहि तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी।।1।।
    माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।  
    सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे।।
  श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।  
    सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं।।2।।
दोहा/सोरठा
ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास।  
    जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास।।101(क)।।
   काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस। 
    प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस।।101(ख)।।
