चौपाई
 सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा।। 
 लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा।।
 धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा।। 
 गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी।।
 डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर।। 
 धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई।।
 मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा।। 
 प्रबिसे सब निषंग महु जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई।।
 तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन।। 
 जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा।।
 बरषहि सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा।।
छंद
जय कृपा कंद मुकंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।  
    खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो।।
  सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।  
    संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही।।
    सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।  
    जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड़ुगन भ्राजहीं।।
  भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।  
    जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने।।
दोहा/सोरठा
कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृंद।  
     भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद।।103।।
