चौपाई
सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसचरन्हि जे मारे।।
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी।।
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई।।
सुधा बरषि कपि भालु जिआए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए।।
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर।।
रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूटे भव बंधन।।
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा।।
राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी।।
खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न।।
दोहा/सोरठा
सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान।।114(क)।।
परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि।।114(ख)।।