चौपाई
 उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी।। 
 अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ।।
 सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ।। 
 मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।
 सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।। 
 जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।
 सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।। 
 अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।
 जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।। 
 अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही।।
 जैहउँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई।। 
 बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं।।
 अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।। 
 निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।।
 सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी।। 
 उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई।।
 बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन। स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन।। 
 उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई।।
दोहा/सोरठा
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर। 
 आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।61।।
