चौपाई
 दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ी। बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी।। 
 गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी।।
 समर भूमि दसकंधर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो।। 
 दंड एक रथ देखि न परेऊ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ।।
 हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा।। 
 सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे।।
 काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं।। 
 कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा।।
छंद
कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।  
    संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले।।
  सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं।  
    करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं।।
दोहा/सोरठा
पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड।  
    चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड।।93।।
