छंद
जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने। 
 दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने।।
 अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे। 
 जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे।।1।।
 तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे। 
 भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे।।
 जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्बहे। 
 भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे।।2।।
 जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी। 
 ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी।।
 बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे। 
 जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे।।3।।
 जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी। 
 नख निर्गता मुनि बंदिता त्रेलोक पावनि सुरसरी।।
 ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे। 
 पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे।।4।।
 अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने। 
 षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने।।
 फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे। 
 पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे।।5।।
 जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं। 
 ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।।
 करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं। 
 मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।।6।।
दोहा/सोरठा
सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार। 
 अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार।।13(क)।।
 बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर। 
 बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर।।13(ख)।।
